Monday, September 13, 2010

धर्माचे शिलेदार

सध्या उत्तर भारतात तिर्थयात्रा खुप मोठ्या प्रमाणात सुरु आहेत. त्यापैकी रामदेवरा म्हणजेच बाबा रामदेव (योग गुरु रामदेव बाबा नव्हेत) यांचे प्रमुख स्थान आहे. रामदेवरा हे पोखरण पासुन १२ किमी उत्तरेला वसलेले आहे. तंवर राजपुत संत श्री रामदेव बाबा याची ही समाधी. ( १४५८ मध्ये त्यांनी येथे जिवंत समाधी घेतली असे सांगतात) आख्यायीका सांगीतली जाते की बाबांच्या चमत्कारांची ख्याती खुप दुरवर पसरलेली होती. त्यामुळे त्यांची परीक्षा घेण्यासाठी मक्का येथुन ५ पीर आले होते. बाबांच्या सामर्थ्याची प्रचीती आल्यावर मात्र त्यांनी आपले जीवन बाबांच्या चरणी अर्पण केले. तेव्हापासुन मुसलमान बांधव बाबांना राम शाह पीर किंवा रामा पीर म्हणुन पुजतात. तर हिंदु बाबांना कृष्णाचा अवतार मानतात.
बाबा रामदेव हे समतेचे प्रचारक होते. गरीब-श्रीमंत, ऊच्च-निच कसलाही भेदभाव न बाळगता त्यांनी समस्त श्रध्दाळुंच्या ईच्छा पुर्ण केल्या व आजही करताहेत. ऑगस्ट-सप्टेंबर मध्ये येथे खुप मोठी यात्रा भरते. लाखो श्रध्दाळु येथे बाबांच्या समाधीच्या दर्शना करीता येतात. सध्या दळणवळणांची साधने भरपुर असल्यामुळे लोक आपापल्या वाहनांनी किंवा ट्रेन, बस कसेही जातात पण अजुनही काही लोक मात्र पायीच जातात. कारण पायी गेल्यानेच बाबा प्रसन्न होतात असा समज आहे. खिशात काही मोजकेच पैसे, दिवसाला ४०-५० किमी अंतर पार पाडायचे असा नित्यक्रम असतो. या श्रध्दाळुंच्या जेवणाची व्यवस्था रस्त्यावरच्या गाववाल्यांकडुन जागोजागी अन्नछत्रे उभारुन केली जाते. असेच हे आजोबा भोपाळ वरुन पायी निघालेत. म्हणजे जवळ जवळ १००० किमी अंतर पायी जाणार हे आजोबा....

Wednesday, September 1, 2010

माझं घर

नुकतीच रणथंभोर अभयारण्याला भेट दिली. तेथल्या किल्ल्यावर गणपतीचं एक सुंदर मंदीर आहे. स्थानिक लोकांची श्रध्दा आहे की जर गणपती दर्शन करुन परत खाली येतांना त्या किल्ल्यावर तिथल्याच दगडांनी घर बांधलं तर स्वतःच्या घराचं स्वप्न पुर्ण होतं. या श्रध्देनुसार बांधलेलं हे माझं घर....

Monday, August 9, 2010

हमारी अधूरी कहानी

मेरे कज़िन का रिलाइयन्स का मोबाइल खराब हो गया था| मैं उसे लेकर नागपुर गया| रिलायंस के वेब वर्ल्ड में| सुबह की बात है| 9 बजे मैं वहाँ पहुँचा| तो वहाँ के एक लड़के ने कहा की जो इस काम को देखती है अभी आई नहीं| मैंने कहा मैं इंतजार करता हूँ| फिर आधे घंटे बाद आयी...एक साँवली लेकिन ब्यूटिफुल लड़की...सिंपल आउटफिट..जीन्स और शर्ट| घुँगराले बाल..कंधो पे खेलते हुए| आँखों में गजब का कॉन्फिडेन्स और होंठों पर बहुत ही प्यारी मुस्कान...ऊफ्फ मैं तो पलभर के लिए पलकें झपकाना तक भूल गया था...!


खैर वो मुझसे बोली...एक्सक्यूस मी..! आप मेरा इंतेजार कर रहे थे? कानों में जैसे मिठास घुल गयी| इतनी मीठी और सेक्सी आवाज़...? अपने धड़कते दिल पे काबू पाते हुए मैंने अपनी प्राब्लम बतायी| ओह..डोन्‍ट वरी..लेम्मी ट्राइ..इफ़ आय कॅन डू समथिंग..! उसके इन शब्दो से मैं होश में आया| मैंने क्या बताया मुझे मालूम ही नही था| जैसे मैं किसी ख्वाब में बातें कर रहा था| कुछ जगह फोन करने के बाद उसने बताया की जिस कंपनी का ये मोबाइल हैं उसका सर्विस सेंटर सिर्फ़ दिल्ली और मुंबई मे हैं| कुछ दिन लग सकते है फोन वापिस आने में...उसने अपना मोबाइल नंबर मुझे देकर जाने को कहा| हवा में उड़ता हुआ मैं घर कब पहुँचा पता ही नही| दूसरे दिन सुबह ही मैंने उसे फोन करने की बजे एसएमएस कर दिया| एण्ड वॉट ए सर्प्राइज़...? रिप्लाइ भी आ गया| फिर चालू हुआ एसएमएस का सिलसिला| जिसमें हम लोगो ने दुनिया भर के एसएमएस एक दूसरे को भेजे| अपनी कविताएँ मैं भेजता था, उसकी कविताएँ वो भेजती थी| आज भी मेरे और उसके पास वो डायरीज़ है जिनमे हमने एक दूसरे की कविताएँ लिख रखी हैं...


फिर वो नागपुर से अचानक दिल्ली चली गयी जॉब के सिलसिले में| वहाँ भी उसे रिलायंस में ही काम मिला|  वह रोज फोन पर मुझसे घंटो बातें करती थी| हम फोन पे हँसते, गाते, खिलखिलाते और रोते भी| हमारी दोस्ती अब सिर्फ़ एक लड़का लड़की की दोस्ती नही रही थी बल्कि अब वो एक प्योर् रीलेशन बन गयी थी| एक ऐसा रीलेशन जिसमे कोई अपने खास से कुछ नही छुपाता! हम हर बात शेयर करते...हर बात| चाहे वो सुख की हो या दुख की| अच्छी हो या बुरी| पर एक दूसरे के बिना हमें कुछ नही सूझता था| मेरे और उसके घरवालो को पता था की ये दोनो काफ़ी क्लोज़ फ्रेंड्स है| जब की हक़ीकत मे हम सिर्फ़ 2 बार मिले थे और वो भी वही रिलायंस वेब वर्ल्ड में| दोस्त मेरी हँसी उड़ाते की ऐसे कैसे किसीसे फोन पे दोस्ती हो सकती है| और अगर हो भी सकती है तो इतनी गहरी दोस्ती? इंपॉसिबल..! फिर वो दिन आया जब हमारी दोस्ती शुरू होने के एक साल बाद हम पहली बार कही बाहर मिलने वाले थे| (दो बार मिले थे पर वो रिलायंस वेब वर्ल्ड में मिले थे और वो भी मोबाइल के रिपेरिंग के बारे में)...


वो 26 जनवरी का दिन था| मैं बाइक से वर्धा से नागपुर गया उसे रेलवे स्टेशन पे रिसीव करने| सच मानो तो काफ़ी एक्साइटेड था| पार्किंग में अपनी डिस्कवर लगाई| अंदर गया| दिल धाड़ धाड़ बज रहा था| कहीं ट्रेन आकर निकल तो नहीं गयी..? कही वो मेरा इंतजार करके चली तो नहीं गयी.? पर शायद मेरा भगवान मुझपे खुश था| मैं अंदर पंहुचा और ट्रेन आ गयी| जैसे ही वो ट्रेन से उतरी.......उफ़फ्फ़...उस दिन कोई मेरी हालत देखता! दिल की धड़कनें इतनी तेज थी की मानो दिल पसलियों को तोड़कर बाहर निकलने को बेताब था| बेताब था उसके कदमो मे बिछ जाने को.,..| मेरी नज़र से तो ट्रेन से उतरने वाली सबसे खूबसूरत लड़की वो थी| बिल्कुल माधुरी दीक्षित लग रही थी| नज़र पड़ते ही हम एक दूसरे की ओर लपके...! पता नहीं पर कैसे...? बड़ी मुश्किल से हम रोक पाए थे एक दूसरे से लिपटने को| कुछ समय की शांतता पर फिर भी हमारी आँखे बातें कर रहीं थी आपस मे| कुछ कह रही थी...और वो सिर्फ़ दिल समझ रहें थे...


स्टेशन से बाहर निकले...पार्किंग से गाड़ी निकाली...पता नही होश में था या मदहोश...पर नो एंट्री से गाड़ी डाल दी| पुलिस ने पकड़ लिया| सिर मुंडाते ही ओले पड़ने का मतलब् उस दिन समझ मे आया| खैर पुलिस को अपना लाइसेन्स देकर जान छूडायी...और उसके घर के रास्ते पे चल निकले| पूरे रास्ते मैं सिर्फ़ लिसनर बना रहा| वो बोलती गयी...बोलती गयी मानों एक ही दिन में पूरे साल की बातें बताना चाहती हो| पता ही नहीं चला उसका घर कब आया| फिर उसके मम्मी पापा और परिवार! काफ़ी खुश हो गये थे वो लोग| पर मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना ही नही था| उस रात उसके घर में मैं सो भी ना सका| फिर एक नयी सुबह आयी| और वो पूरा दिन हमनें एक दूसरे के साथ बिताया| दिन तो ढल गया...पर कभी ना भूलने वाली यादें देकर| मैं अपने घर लौट आया| कुछ खोकर...बहुत कुछ पाकर...! वो क्या था जो मैंने खोया था..? वो क्या था जो मैंने पाया था...? शब्दों में बयाँ नही कर सकता...! कभी कभी शब्द भी बेवफा बन जाते है....|


वो वापस दिल्ली चली गयी| सिलसिला फिर शुरू हुआ, एसएमएस का फोन कॉल्स का| एक बात बताना मैं भूल गया....वो रोज फोन पर मुझसे आई लव यू कहती थी...पर कभी मैंने नही कहा...| पता नही क्यों...? मेरी फ़ितरत भी देखो कैसी अजीब हैं जो कहना चाहता हूँ वो कह नही पाता...| और जो कहना नही चाहता वो मुँह से निकल जाता है....! मेरे एक दोस्त की बहन थी...डीओर्सी थी| दोस्त ने अपनी बहन की खुशियाँ माँगी मुझसे...! मना नही कर सका....| अपने कुछ फ़ैसले मैं खुद लेता हूँ| ऐसे ही मैंने एक बहुत बड़ा फ़ैसला खुद ले लिया...अपनी शादी का| एक दिन घर मे ऐलान कर दिया की मैं एक डीओर्सी से शादी करूँगा! घरवाले सकते में आ गये...समझाने की बहुत कोशिशें की मुझे| पर मेरा फ़ैसला अटल था| उस दिन फोन पे मैंने उसे मेरे फ़ैसले के बारें में बता दिया| फोन पर हँसती खिलखिलती आवाज़ एकदम से बंद...! पूरे 3 मिनिट्स तक वो कुछ भी नही बोली...फिर अचानक रोना चालू कर दिया| रोते रोते उसने जो बताया...उसे सुन कर मैं पागल हो उठा| दिल में आया की जाकर वो वादा तोड़ दूँ जो मैने अपने दोस्त से किया हैं|
तोड़ दूँ वो संकल्प जो मैंने लिया था| किसी बेसहारा का घर बसाने का...जो मेरे बिना जी नहीं सकती उसे लेकर चला जाऊँ कही दूर...बहुत दूर...! जहाँ कोई ना आए हमारें बीच...| पर क्या इंसान जो सोचे वही होता हैं? शायद नही इसीलिए तो इंसान भगवान को मानता हैं| मेरी उस भूल ने उसको कही का ना छोड़ा| मैं बदनसीब यही समझता रहा की जो मैं अपने दिल में महसूस कर रहा हूँ वो सिर्फ़ मेरा प्यार हैं...! मेरा एकतरफ़ा प्यार..! और जो आई लव यू वो कहती हैं वो एक दोस्त के लिए हैं....| बस यही ग़लती हो गयी मेरी! मैं अपने दिल की बात कह ना पाया उससे....! और वो कहती थी तो उसे समझ ना पाया...मेरी शादी में भी वो आई | मेरे साथ साथ रहीं... अपने हाथों से मुझे मेहंदी लगाई, हल्दी लगाई,..और हम खूब रोए भी...आज मेरी वाइफ को ये सब बातें पता हैं...| पर वो इतना जानती हैं की हमारें दिल में पाप नही हैं और ना मैं उसके बारें में कुछ ग़लत सोच सकता हूँ...| वो आज भी मेरी बेस्ट फ़्रेंड हैं और रहेगी| आज मैं अपने फॅमिली में खुश हूँ....जैसे वो भी हैं....शायद ! मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ....बहुत खुशकिस्मत...की वो मुझे मिली....|

याद

रात के 2 बज रहे हैं... मैं अपने पंप के रूम में बेड पे लेटा हुआ हूँ| आज धुलेंडी हैं| दिल में एक याद अपने बीबी बच्चों की| मुझे याद हैं वो दिन...पिछ्ले साल का..! उस दिन भी होली की धुलेंडी थी| मेरी शादी के बाद पहली होली...! मैं उन यादों में खोया हुवा हूँ| क्या खूब होली खेला था मैं अपनी बीबी और बच्चे के साथ..! पूरे नवोदय के कॅंपस में होली चल रही थी| स्कूल के बच्चे मस्ती के साथ एक दूसरे के उपर रंग डाल रहे थे| हम पति पत्नी भी अपने बच्चे के साथ होली खेलने बाहर निकल आए| खूब रंग उड़ाया! गुलाल का तो मानो बादल छा गया था कॅंपस में| मेरा बेटा अंशुल काफ़ी स्मार्ट हैं...! उसने औरों को रंग लगाने से पहले हम दोनों के चरण स्पर्श किए, हम दोनों को गुलाल लगाया, और फिर पता नही उस नन्हे शैतान को अचानक क्या सूझा...! हमें कहा की अब आप एक दूसरे को गुलाल लगाओ...हेहेहे...क्या शरमा गयी थी वीनू उस दिन जैसे कल ही हुमारी शादी हुई हो| उस दिन की एक एक याद दिल मे बसी हैं| आज भी होली हैं! पर मैं अकेला हूँ...अपने परिवार से सैकड़ों मैल दूर...! दिल में एक टीस सी उठ रही हैं...! क्‍यों मेरे साथ ऐसा हुआ...? क्‍यों भगवान ने एक हाथ से खुशियाँ देकर दूसरे हाथ से छीन ली...? अपनी 2 महीनो की बच्ची को छोड़के क्यो यहा पड़ा हूँ मैं...? अकेला...बिल्कुल अकेला...! दिल रो रहा हैं...! आँसू पलको के किनारों पे आके रुके हुए है....जैसे बाहर निकालने को बेताब...! रोना चाहता हूँ...! पर...पर...किसिका कंधा नही हैं मेरे पास रोने के लिए...! किसी के हाथ नही हैं उन आँसुओ को पोंछने के लिए जो बेताब हैं बाहर निकालने को| अकेला...बिल्कुल अकेला महसूस कर रहा हूँ मैं| रोने को बहुत दिल कर रहा हैं...बहुत| पर....फिर याद आता हैं, मर्द को कभी दर्द नही होता...मर्द कभी रोया नही करते| कौन कहता हैं मर्द को दर्द नही होता..? कौन कहता हैं मर्द कभी रोया नही करते...? देख लो मैं रो रहा हूँ...! उन लम्हों को याद करके जो पिछले साल मैंने अपने फॅमिली के साथ गुज़ारे थे| मैं रो रहा हूँ...! अपने बेटे को याद करके जो कभी मेरे बगैर खाना नही ख़ाता था..! मैं रो रहा हूँ अपनी बेटी को याद करके जिसे मैं 15 दिन की छोड़के यहाँ आया था...मैं रो रहा हूँ...सच्ची...मैं रो रहा हूँ.....!

Saturday, July 31, 2010

अदला बदली

  " ए भाई किसीको तो पुछ लो" शेवटी माझा वैतागलेला मेंदु बोलला. रात्री १०.३० ची वेळ.

शंभू, नरेश, राजु व मी मित्राच्या लग्नाला गेलो होतो. घरुनच निघायला उशीर झाल्यामुळे उशीरा पोहचणं स्वाभाविकच होतं. मुख्य रस्ता सोडुन गाडी कच्च्या रस्त्याला लागली आणि आमचे हाल व्हायला सुरुवात झाली. त्यात आमचा ड्रायव्हर त्याच्या बाजुची काच उघडी ठेवुन गाडी चालवत होता. ( काय तर म्हणे थंडीत गाडीच्या सगळ्या काचा बंद केल्या तर काचेवर धुकं जमा होऊन काहीच दिसत नाही. ) त्यामुळे आम्ही थंडी + धक्के असा दुहेरी मारा झेलत होतो. आठ वाजायला आले तेव्हा धुकं एवढं पडायला लागलं की काहीच दिसत नव्हतं. पण पठ्ठ्या गाडी थांबवायला तयार नव्हता. तसं आम्हाला पण थांबायचं नव्हतं म्हणा.कारण लग्न आटोपुन लगेच माघारी फिरायचं होतं.
कसेबसे मित्राच्या गावी पोहचलो. लग्न, जेवण आटोपलं. पैशाचं पाकीट मित्राच्या हाती कोंबुन परतीच्या वाटेला लागलो तेव्हा ९.३० वाजत आले होते.आता थंडीचा आणि धुक्याचा जोर इतका वाढला होता की परत जाणे जवळ जवळ अशक्यच वाटत होतं. शेवटी सर्वानुमते कुठेतरी मुक्काम करायचा निर्णय झाला आणि आपापल्या बायकांना फोन करुन त्यावर शिक्कामोर्तब पण झालं. घनदाट धुक्यातुन आमची हॉटेल किंवा लॉज ची शोधमोहीम सुरु झाली.भयंकर थंडीपुढे पोटातल्या दारुने सुद्धा हात टेकले होते. लग्नातल्या भरपुर जेवणामुळे मेंदुवर झोपेची अनिवार नशा चढत होती पण त्या नशेच्या पडद्याला सार्वजनिक बांधकाम विभागाच्या कृपेमुळे मध्ये मध्ये छेद जात होता. जवळ जवळ एक तासाचा शोध असफल होतांना दिसत होता. तेव्हा मेंदुने वरीलप्रमाणे आपला वैताग बाहेर काढला होता.

" किको पुछु सा? अठे ते काळो कुत्तो भी कोणी!" ड्रायव्हर चे खरमरीत उत्तर. हे ही खरंच होतं म्हणा. जवळ जवळ एक तास होत आला होता पण कुणीही किंवा काहीही दृष्टिस पडलं नव्हतं. तसेही राजस्थानात थंडी खुप असते आणि लोक सुद्धा लवकर झोपी जातात. " कतरी देर सु घुम रया पर....." ड्रायव्हरचे पुढील शब्द धुक्यात विरले. "एक मिनीट! एक डोकरा छे वठे. वाको पुछे हा." ड्रायव्हरला तो धुक्यातला म्हातारा कसा दिसला देव जाणे. हातातला टॉर्च सांभाळत उभ्या असलेल्या म्हातार्‍या जवळ गाडी थांबली. " बा सा अठे रहन रो वास्ते लॉज कठे छे?" ड्रायव्हरने विचारले. टिपीकल राजस्थानी म्हातारा होता तो. डोक्यावर रंगबिरंगी मोठा फेटा, भरगच्च पांढर्‍या मिशा, चेहर्‍यावरच्या सुरकुत्यांमागे लपलेले डोळे, दाढीचे खुंट वाढलेले, अंगावर धोतर आणि बंडी, खांद्यावर घोंगडी, एका हातात टॉर्च तर दुसर्‍या हातात तेल पाजुन तयार केलेली लोखंडाची मोठी शेंबी असलेली भली थोरली काठी. " देखिये यहाँ से कुछ दुर एक हॉटेल हैं पर वहाँ कोई कमरा मिलेगा या नही ये मैं नही बता सकता. यहाँ से जो अगला मोड आयेगा वहाँ से बाए मुड़ जाईये, ४-५ की.मी. बाद सिधे हॉटेल पहुंच जायेंगे."

एवढा गावरान म्हातारा आणि एवढी शुद्ध हिंदी ? मला नवल वाटले. पण आतापर्यंतच्या माझ्या आयुष्यात मी खुप नवलाई पाहीली असल्यामुळे अप्रुप मात्र वाटले नाही. इतर वेळ असती तर कदाचित मी त्या म्हातार्‍याची चौकशी पण केली असती पण झोपेत पेंगुळ्णार्‍या डोळ्यांनी परवानगी दिली नाही. म्हातार्‍याचे आभार मानुन आम्ही पुढच्या प्रवासाला लागलो.

गडद धुक्यातल्या त्या वाटचालीत ड्रायव्हर ने गाडी कधी हॉटेलच्या दारासमोर लावली कळले नाही. " उतरो सा! " मी बाकी सगळ्यांना उठवले. पेंगुळ्लेल्या मनाने आणि आंबलेल्या शरीराने मी गाडीच्या बाहेर पाऊल टाकले, आणि.....क्षणार्धात झोप कुठल्या कुठे पळुन गेली. मनाच्या कुठल्यातरी कोपर्‍यातुन एक सावधतेचा इशारा आला. अशा माळरानात एवढे पॉश हॉटेल? आणि दरवाज्यावर ते कसले भयंकर शिल्प? भीतीची एक अनामिक लहर पाठीच्या कण्यातुन अगदी शेवट्पर्यंत लहरत गेली. च्यायला या विशाल च्या कथा वाचणं सोडलं पाहीजे! नको तिथे, नको तेव्हा, नको ते विचार येतात. तर्कशक्तीने भीतीवर मात केली आणि हॉटेल्च्या दरवाज्यात पाय ठेवला.

पाच जणांसाठी रुम बूक करतांना त्रास झाला नाही पण काउंटरवरच्या त्या माणसाच्या डोळ्यांतील चमक मनात अस्वस्थता निर्माण करत होती. रुम नं. १०३ व १०४. शंभू , नरेश व मी १०३ मध्ये तर ड्रायव्हर व राजु १०४ मध्ये. आल्या आल्या एका जास्तीच्या रजईची ऑर्डर देऊन पलंगावर पहुडलो.डोळ्यांतील झोपेची जागा आता अस्वस्थतेने घेतली होती. वरवर काहीच दिसत नसलं तरी इथे काहीतरी धोकादायक नक्कीच होतं. एवढा पट्टीचा झोपणारा मी पण झोप म्हणता कशी येईना. शंभू, नरेश झोपी गेले पण मी मात्र झोप येत नाही म्हणुन की वेळ जात नाही म्हणुन टी.व्ही. बघत होतो. बघत कशाचा होतो ? फक्त चॅनल बदलत होतो. सहज म्हणुन मोबाईल वर नजर टाकली तर बॅटरी पुर्ण रिकामी होऊन तो बंदपण झाला होता. बापरे! आता बोंबला! मोबाईल डिसचार्ज झाला म्हणजे मला अर्धा जीव गेल्यासारखं वाटतं. टीव्हीत पाहण्यासारखं काहीच दिसत नव्हतं म्हणुन तो बंद केला आणि कशाचा तरी विचार करायला लागलो. नेमका कशाचा ते आठवत नाही कारण विचार एवढ्या पटापट बदलंत होते की कशाचाच अर्थ लागत नव्हता.

अचानक दचकुन तंद्रीबाहेर आलो. बाजुला बघतोय तर शंभू झोपेत चक्क रडंत होता. अगदी अभद्रपणे पण एका संथ लयीत. मध्येच 'नही! नही!' म्हणत होता. रडतांना त्याचा चेहरा मात्र रडका न दिसता खुप विद्रुप दिसत होता. मी घाबरलो. आयला! हे काय नविन ? इतके दिवस झाले शंभूला ओळखतो पण तो झोपेत रडतो हे माहीतच नव्हते. मनाचा हिय्या करुन त्याला उठवले. " शंभू ! ए शंभू! अबे उठ ! जल्दी! क्या हुआ?" अचानक तो रडायचा थांबला. अगदी आकस्मिकपणे यंत्रवत डोळे उघडले आणि एक नजर माझ्यावर टाकली. मी शहारुन उठलो. ती नजर त्याची नव्हतीच. अथांग कुटीलता भरलेली, कुठल्या तरी मृतदेहावर ताव मारण्यासाठी टपुन बसलेल्या धुर्त कोल्ह्याची होती ती नजर. त्या थंडीतदेखील माझ्या कानांमागुन घाम निथळायला लागला. अंतर्मन मनाला सावधगिरीचा इशारा देत होते. "नको रे बोलुस त्याच्याशी! हे काहीतरी वेगळं आहे." पण ऐकेल तर ते मन कसलं? " ए क्या हुआ था? क्यों रो रहे थे? " कसेबसे कंठाच्या बाहेर पडलं हे वाक्य. " कुछ नही! एक बुरा सपना आ गया था| लगता हैं दारु ज्यादा हो गयी हैं| "

मी जरा आश्वस्त झालो. दारु माणसाला संवेदनशील बनवते म्हणतात. ( आणि कदाचित संवेदनशुन्य सुद्धा ) आणि संवेदनशील मन सत्यच नाही तर स्वप्न सुद्धा इतक्या तिव्रतेने ग्राह्य धरतं की ते स्वप्न होते हेच स्विकारायला धजत नाही. आणि मग त्या स्वप्नांचे वेगवेगळे अर्थ काढले जातात. चांगले....वाईट. " छ्या: कमकुवत मनाचा साला! दारु पिल्यामुळे वाईट स्वप्न पडते काय? काहीतरीच... साल्याच्या मनातंच काहीतरी वाईट असेल. आपल्याला नाही पडत बुवा असली वाईट स्वप्नं. " भीती दुर करण्यासाठी माझ्या कमकुवत मनाने सारवासारव केली. मी शंभू कडे बघितले. तो भकास नजरेने छताकडे बघत होता. मी परत विचारात बुडालो. झोप तर येतंच नव्हती. एवढ्यात शंभूचे(?) वाक्य कानी पडले. " अमोलजी आप सो जाओ |" त्याच्या आवाजातील बदल माझ्या लक्षात आला पण त्या वाक्यासरशी माझे डोळे पेंगुळायला लागले. मेंदु न झोपण्याचा आटोकाट प्रयत्न करत होता पण कित्येक दिवसांचा जागा असल्यासारखा मी एका मिनीटात झोपी गेलो.

मला पडत होते ते स्वप्न होते नक्कीच पण मध्येच अतंर्मनाची टोचणी येत होती की हे काहीतरी खुप धोकादायक आहे. मी एका अंधार्‍या खोलीत कशावर तरी झोपलेलो होतो. कुठे आहो याची काहीच कल्पना नव्हती. जणु बाहेरचा संपुर्ण अंधार त्या खोलीत साकळ्लेला होता कारण बाहेर टिपुर चांदणे पडलेले होते. दुर कुठेतरी भेसुर आवाजात चाललेली कोल्हेकुई मनात भीतीचे सावट वाढवत होती. येथे नक्कीच आपल्या जीवाला धोका आहे. इथुन याक्षणी पळुन गेलं पाहीजे. अंतर्मनाने परत एकदा इशारा दिला. पण हातपाय जणु एखाद्या मंत्रशक्तीने बांधुन ठेवले होते. आणि अचानक नाकातील केस जाळणारा अतिशय उग्र आणि कुबट दर्प जाणवला. जीव कासावीस झाला. जीवाच्या आकांताने मी मदतीसाठी ओरडलो पण तोंडातुन गुं गुं शिवाय आवाजच निघाला नाही. देवा! वाचव रे मला यातुन! शरीराच्या अन् मनाच्या जाणिवा बोथट व्हायला लागल्या आणि अचानक खोलीच्या एकमेव खिडकीत मला शंभूचा चेहरा दिसला. " मुझे माफ कर देना अमोल जी ! वो मुझे मेरा बच्चा माँग रहा था क्योंकी वो रात के ठीक बारा बजे पैदा हुआ था| पर मैने अपने बच्चे को बचाने के लिये अदला बदली कर ली| क्योंकी आपने ही तो बताया था की आप भी रात को ठीक बारा बजे.........." पुढचे शब्द हवेत विरले आणि मी मरुन पडलो..


दुसर्‍या दिवशीची बातमी...

अती मद्यपानामुळे युवकाचा झोपेत म्रुत्यु

Thursday, July 29, 2010

आव्हानांवर मात करा

डिसक्लेमर : हे लिखाण माझे स्वतःचे नाही. जेव्हा मी काही वैयक्तिक कारणांमुळे नैराश्येच्या गर्तेत बुडालो होतो. तेव्हा माझ्या एका खास मित्राने मला एक मोटिवेशनल पुस्तक वाचायला दिले होते. ज्या लेखाने माझ्यात आत्मविश्वास निर्माण केला तो हा लेख आपल्याशी शेअर करीत आहो.


जापान्यांना ताजे मासे खुप आवडतात. पण दशकांपासुन जापानच्या किनारपट्टी जवळील पाण्यात खुप कमी मासे आहेत. म्हणुनच जापानी लोकांच्या उदरभरणासाठी मासेमारी करणार्‍या बोटी मोठ्या झाल्यात, मासेमारी करण्यासाठी कधी नव्हे त्या इतक्या दुरवर जाऊ लागल्यात. मासेमार जेवढा दुर जाऊ लागला तेवढा वेळ त्याला मासे घेऊन परतायला लागायला लागला आणि तेवढ्या प्रमाणात मासे शिळे व्हायला लागलेत. जापान्यांना शिळ्या माशांची चव आवडली नाही.आणि म्हणुनच ही समस्या दुर करण्यासाठी मासेमारी करणार्‍या कंपन्यांनी आपल्या बोटींवर मोठाले freezers लावले. ते मासे पकडायचे आणि त्यांना गोठवुन ठेवायचे.
freezers मुळे बोटी आणखी दुरवर जायला लागल्यात, जास्त काळ समुद्रावर राहायला लागल्यात. पण जापान्यांना ताजे मासे आणि गोठवलेले मासे यांच्या चवीतला फरक जाणवला आणि गोठवलेल्या माशांच्या किंमती धाडकन कोसळल्या. म्हणुन मासेमारी करणार्‍या कंपन्यांनी आपल्या बोटींवर fish tanks लावले. ते मासे पकडायचे आणि त्यांना fish tanks मध्ये सोडुन द्यायचे. अगदी दाटीवाटीने. आपसातल्या थोड्याश्या कुरबुरी नंतर किंवा भांडणानंतर म्हणा हवं तर, माशांची हालचाल पुर्णपणे थंडावली. जीवंत पण अतिशय गलितगात्र मासे, पण बरेच दिवस हालचाल न केल्यामुळे मृतवत होऊन आपली चव हरवुन बसले.
आता मासेमारी कंपन्यांसमोर एक नविनच समस्या उभी राहली होती. पण आज त्या समस्येवर मात करुन मासेमारी हा जपान मधील अतिशय मोठ्या आणि महत्वाच्या उद्योगांपैकी एक आहे. माशांची चव ताजी ठेवण्यासाठी आजही जपानी मासेमारी कंपन्या त्या माशांना fish tanks मध्ये ठेवतात. मग.......काय उपाय केला असेल बरं त्यां कंपन्यांनी ?

ते आता प्रत्येक fish tank मध्ये एक छोटासा शार्क मासा सोडतात. तो त्यातल्या काही माशांना खातो खरा पण ईतर मासे मात्र जगण्यासाठी आव्हान मिळाल्यामुळे आणि ते स्विकारल्यामुळे नुसते जीवंतच नाही तर तंदुरुस्त सुद्धा राहतात. सहाजिकच अशा माशांना चांगली मागणी आणि किंमत मिळते.



माणसं सुद्धा काही वेगळी नाहीत. १९५० च्या सुरुवातीला L. Ron Hubbard यांनी केलेल्या संशोधनानुसार "आव्हानात्मक वातावरणातच माणुस प्रगती करु शकतो."

तुम्हाला सळसळतं आणि दमदार आयुष्य जगायचं असेल तर आयुष्यात येणार्‍या प्रत्येक आव्हानाला, संकटाला,समस्येला समोर गेलं पाहीजे. तेव्हाच जगण्याचे नवनविन मार्ग शोधता येतात. आव्हानांना, समस्यांना वळसा घालुन गेल्यापेक्षा त्यांना स्वीकारा, त्यांच्या मुळापर्यंत पोहचा. त्याबद्दल अधिक ज्ञान मिळवा, अधिक चिकाटीने काम करा. पुढील मदत आपोआप मिळत जाईल.
म्हणुनंच रामदास स्वामींचा एक श्लोक मला इथे नमुद करावासा वाटतो.
केल्याने होत आहे रे, आधी केलेची पाहीजे |

Friday, July 23, 2010

और मुझे प्यार हो गया


बात उन दिनो की है जब मैं कॉलेज में पढता था | मेरे साथ एक लडकी पढती थी जिसका नाम सोनाली था | मेरी काफी अच्छी दोस्त थी वह, मैं उसे प्या से सोनु कहके पुकारता था | हम दोनो आजु बाजु के बेंचेस पे बैठते थे | वो जो टीफीन लाती थी उसमे साथ लंच करते और कभी कभी साथ में ही पिरीयड बंक करते थे | वो हमारा साथ में कॉलेज का ५ वा साल था | फायनल ईयर..गॅदरिंग रखा हुआ था | हमारे कॉलेज की नं १ डान्सर मिस संगीता ने एक साँग पे डान्स बिठाया था | डान्स की थीम कुछ इस प्रकार थी की भगवान कृष्ण राधा के संग ज्यादा समय बिताते हैं और उसके प्रेम में भगवान अपनी पत्नी रुक्मिणी को भी भुल जाते हैं | तो रुक्मिणी उन्हे मनाने के लिये डान्स करती हैं | उस डान्स मे संगीता ने ( जो की हम दोनो की काफी अच्छी दोस्त थी ) रुक्मिणी का रोल खुद किया था, क्योंकी डान्स तो उसीको करना था | कृष्ण का रोल हमारे सिनीयर विजय को और राधा का रोल सोनु को दिया |


डान्स की प्रॅक्टिस होने लगी | मैं सोनु के साथ जाता और वापस आता | पर हमारे प्रॅक्टिस रुम अलग अलग थे | शुरु से ही मैं प्ले और मिमिक्री में इंटरेस्टेड होने के कारण डान्स पे कम ध्यान देता था | मैं अपने प्ले की प्रॅक्टिस करता अपने गृप के साथ और सोनु अपने डान्स की प्रॅक्टिस करती अपने गृप के साथ |
एक दिन मेरे प्ले के कुछ कलाकार ना आने के कारण मैंने अपने प्रॅक्टिस को छुट्टी दे दी और डान्स वाले रूम में प्रॅक्टिस देखने चला गया |
वहाँ संगीता, सोनु और विजय की डान्स की प्रॅक्टिस चल रही थी | कृष्ण के रोल में विजय और राधा के रोल में सोनु जो अक्टिंग कर रहे थे उसे देखकर पता नही क्यों मेरे दिल में कुछ अजीब सी फिलींग्स आने लगी | ना जाने क्यों इतना अच्छा डान्सर विजय, जो मेरा सबसे फेवरेट था, मुझे अच्छा नही लग रहा था | कुछ तो गडबड थी | पर क्या? समझ में नही आ रहा था |
उस दिन प्रॅक्टिस के बाद मैं कुछ खामोश खामोश सा था | कुछ खोया खोया सा... सोनु को यह बात काफी अखरी | उसने काफी पुछा की Ammu..whts wrng with u? पर जब मुझे ही पता नही था तो मैं क्या जवाब देता?
खैर...! उस दिन के बाद मैं रोज कुछ ना कुछ बहाना करके उनके प्रॅक्टिस रूम में जाने लगा | और दिन-ब-दिन मुझे विजय पे गुस्सा आने लगा | साला डन्स में इतनी overacting करने की क्या जरुरत हैं? सोनु को असली राधा समझकर डान्स करता हैं साला ! लगता हैं डोरे डाल रहा हैं उसपे ! ......पर विजय तो बुरा लडका नही था | मैं खुद भी विजय का बहुत बडा चहेता था डान्स में ! अगर वो सोनु को propose करता हैं और सोनु भी उसे हाँ करती हैं तो इसमें बुरा ही क्या हैं ?
दिमाग में उलटे सीधे सवाल घुमने लगे | जिनका जवाब ढुंढते ढुंढते मैं खुद परेशान होने लगा | क्या करु?.....समझ मे नही आ रहा था | हे भगवान...! मैं ऐसा क्या करु की विजय और सोनु की बढती नजदिकीया खत्म कर सकु ? पर मैं ऐसा क्यों करु ? मैं क्यों जल रहा हुं विजय से ? क्या सोनु भी विजय को चाहने लगी हैं? उफ्फ.....! मुझे कुछ ना कुछ तो करना ही पडेगा !
आखिर वो दिन निकला जिस दिन गॅदरिंग था | पुरे दिन मेरे दिमाग में उथल-पुथल मची हुई थी | दो तीन बार सोनु ने पुछा भी, क्या हुआ अम्मु? तबियत खराब हैं ? चलो डॉक्टर के पास...| पर मैं उसे कैसे समझाता की.............| उफ्फ्फ्फ...

एक एक प्रोग्राम होता चला गया | स्टेज पर हमारे प्ले का announcement हुआ | पर मेरा दिमाग ही काम नही कर रहा था | कई बार मैं अपने डायलॉग्ज भी भुल गया | नतीजा ये निकला की जो अमोल अपने प्लेज मिमिक्री के लिये जाना जाता था, उसका प्ले पुरा फ्लॉप हो गया | हे भगवान ! तुमने तो आज हमारी नाक ही काट दी अम्मु ! दोस्त कह रहे थे |
मैं क्या जवाब देता ? दिमाग में प्रॅक्टिस के दिनों की विजय और सोनु के डान्स की फिल्म flashback की तरह चल रही थी | मेरी आँखों ने कुछ और देखना नाकबुल किया था | जब दिमाग की परेशानी थकान बनके अपना कमाल दिखाने लगी तो अचानक एक चक्कर सा आ गया | अरे अरे ! ये क्या हुआ अम्मु को ? सब दोस्त चिल्ला उठे | जब मुझे एक अलग कमरे में लिटाया गया तो थोडी राहत महसूस हुई |
कमरे में लेटकर मैं सोचने की कोशीश कर रहा था की अचानक........दिमाग में एक घंटी सी बजी...yess...Ammu u love her... सोनु सिर्फ तुम्हारी दोस्त ही नही तुम्हारा प्यार हैं | हा हा हा तुम चाहते हो उसे...जान से भी ज्यादा..तभी तो उसे किसी दुसरे के साथ डान्स करते हुए भी देख नही सकते ! विजय के साथ jealousy का यही राज हैं | जाके कह दो उसे..की तुम उसे प्यार करते हो...जाओ...जल्दी...कही देर ना हो जाए...वरना वो किसी और की हो जायेगी...जाओ...जाओ...जल्दी....!
मै उठके स्टेज की तरफ भागा | पिछे मेरा दोस्त...जिसे मेरे साथ कमरे में रखा गया था | विंग में जाकर...वहाँ अपने डान्स के नंबर का इंतजार कर रहे लडके-लडकियों को मैं पुछने लगा....सोनु कहाँ हैं ? अरे कोई तो बताओ सोनु कहाँ हैं ? और....इतने में डान्स के लिये नाम अनाउन्स हुआ... Friends now we present dancer no 1 of our college Ms Sangita with her partners Ms Sonali and Mr Vijay ! ..
मेरे पाँव जहाँ थे वहीं जाम हो गये | आँखें स्टेज की तरफ....बी विंग से वे तीनों स्टेज पे आये | My God ! क्या दिख रही थी वो...! और वो उल्लु का पठ्ठा भी काफी हँडसम लग रहा था | एकदम राधा कृष्ण की जोडी लग रही थी | डान्स शुरु हो गया | उफ्फ्फ....तीनों अपने अपने पार्टस में जान फुंक रहे थे | उफ्फ्फ.... मेरा दिल बैठने लगा...गला भर आया..आँखों से आँसु निकल कर टप टप बहने लगे |
शायद मैं हार गया था | उन्हे वहाँ देखकर कोई भी नही कह सकता था की राधा कृष्ण की जोडी इससे अलग हो सकती हैं | डान्स खत्म हो गया...तालीयों की जोर्दार गडगडाहट मेरे दिल पर घुंसे बरसाने लगी | मैं थके कदमों से और रुंधे गले से विंग से निकलकर मेकअप रूम में गया |
मेकअप रूम में संगीता और सोनु अपना मेकअप उतार रहे थी | मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर संगीता ने पुछा, क्या हुआ अम्मु? सब ठीक तो हैं ना ? मेरी रुलाई भर आई | आँखों से आँसु ना निकले इसकी काफी कोशीश की पर आँसु भी बेवफा हो गये थे | क्या होगा संगीता? आज मैं हार गया...रुंधे गले से आवाज निकली | Don't worry Ammu ! आज तुम्हारी तबीयत ठीक नही थी इसलिए तुम प्ले में perform नही कर पाये | इसमें दिल पे लेनेवाली क्या बात हैं ? हँसते हुए संगीता बोली |
मैं इसलिए नही रो रहा हुं संगीता.....मैं सोनु से प्यार करता हुं...पर मैं पागल आज तक समझ नही पाया..की यही प्यार हैं...और आज जब समझ गया तब देर हो चुकी हैं...शायद सोनु किसी और को चाहने लगी हैं...मैं बेवकुफ का बेवकुफ ही रहा...कह भी नही पाया...और कहा तो तब, जब कोई फायदा नही...|

सोनु जो कब से मेरा आँसुओ से भरा चेहरा देख रही थी, अचानक मेरे सामने आयी और दोनो हाथों से मेरा गिरेबान पकडकर बोली...अम्मु ! अरे पागल...मैं तो कबसे तुम्हारे मुंह से यही सुनना चाहती थी....मैं तो हमेशा से तुम्हे प्यार करती थी पगले ! ...पर तुमने कभी भी मेरी feelings को समझा ही नही | मैं खुद तुमसे कहती तो तुम इसे सिर्फ दोस्ती का नाम दे देते ! क्योंकी तुम तो उस प्रिया पे मरते थे...| इसलिए संगीता और विजय ने मिलकर ये प्लान बनाया ताकी तुम्हे अहसास हो की तुम भी मुझसे प्यार करते हो....!
इतना कहकर वो मेरे कंधे पे सर रखकर रोने लगी | मेरा भी खुदपर काबु ना रहा | मैं भी रोने लगा ! पर अब ये आँसु गम के नही खुशी के थे | मैं अपना प्ले का अवार्ड जरुर हार गया पर मेरा प्यार जीत लिया था मैंने | और शायद ये आँसु जीत के थे | उसी आँसुओ भरी आँखोंसे मैंने देखा.....संगीता और विजय भी आँखोंमें नमी और होठों पे मुस्कान लिये....एक दुसरे की बाहों मे समा गये.... |

Monday, January 4, 2010

मैंने संभाल के रखा है


मैंने संभाल के रखा है तेरे प्यार को वहाँ,
जहाँ ...........
आस है ना साँस है,
भुख है ना प्यास है|
शिकवा है ना शिकायत है,
जिंदगी है ना मौत है|
दूर है ना करीब है,
झुठ है ना फरेब है|
सूरज है ना चाँद है,
हुक्म है ना फरीयाद है|
जग है ना जंगल है,
फासला है ना मंजील है|
शितलता है ना तपन है,
खुशबु है ना पवन है|
धुप है ना छाँव है,
दर्द है ना घाँव है|
सीमा है ना क्षितीज है,
कल है ना आज है|
रुकना है ना रवानी है,
अंधेरा है ना रोशनी है|
तरंग है ना उमंग है,
आँशिया है ना आँगन है|
पर्वत है ना घाँटीया है,
तुफान है ना माँझिया है|
गाँव है ना शहर है,
सुबह है ना दोपहर है|
धरती है ना॑ अंबर है,
झील है ना समंदर है|
अंजान है ना पहचान है,
गरीब है ना धनवान है|
जहाँ ना तुमको कोई,....
'छु' सके......
'देख' सके.....
'पा' सके.....
दिल के आगे.....
बहुत आगे.....
मैंने संभाल के रखा है.....
तेरे प्यार को वहाँ....